विचार

सवारी बुलबुल की ‘ :रूपक,गप या फ़साना ?

सवारी बुलबुल की ' :रूपक,गप या फ़साना ?

                                                       
                                     तनवीर जाफ़री  
 1965 में रिलीज़ हुई फ़िल्म ‘जब जब फूल खिले’ में गीतकार आनंद बख़्शी द्वारा लिखित गीत ‘एक था गुल और एक थी बुलबुल’ दोनों चमन में रहते थे,यह उस दौर के सबसे लोकप्रिय गीतों में एक तो ज़रूर था। परन्तु निश्चित रूप से उन दिनों भी किसी ने बुलबुल की शक्ति व सामर्थ्य के बारे में उतनी चर्चा नहीं की जितनी ‘बुलबुल पर चर्चा ‘ पिछले दिनों कथित तौर पर विनायक दामोदर सावरकर द्वारा ‘बुलबुल की सवारी’ करने के विषय को लेकर सुनाई दी। टी वी डिबेट से लेकर ख़बरों व आलेख तक में सावरकर के पैरोकारों व आलोचकों सभी ने इस विषय पर बिंदास होकर अपने अपने तर्क रखे। ग़ौरतलब है कि कर्नाटक के सरकारी स्कूल की 8वीं कक्षा की कन्नड़ भाषा की एक किताब के एक अध्याय में कुछ हास्यास्पद बातें प्रकाशित की गयी हैं और इन्हें बच्चों को पढ़ाया जा रहा है जिससे विवाद पैदा हो गया है। लेखक के टी गट्टी  द्वारा लिखित पुस्तक में लेखक का दावा है कि जिन दिनों सावरकर अंडमान जेल में बंद थे, तो वहां उनके जेल कक्ष में कोई सूक्ष्म सा भी सुराख नहीं था, परन्तु इसके बावजूद वहां एक बुलबुल पक्षी आया करती थी और सावरकर उसपर सवार होकर जेल से बाहर ‘मातृभूमि की सैर’ किया करते थे। इन दावों को ‘सावरकर वादियों ‘ द्वारा स्वीकार कर लेना कोई आश्चर्य की बात इसलिये नहीं क्यूंकि हमारा देश ‘अध्यात्म प्रधान ‘ देश होने के नाते यहाँ के लोगों में अनेकानेक असंभव सी लगने वाली बातों को भी आसानी से ‘हज़म’ कर लेने की पूरी क्षमता है। अन्धविश्वास प्रायः तर्क पर भारी पड़ जाता है। 
 कल तक सावरकर को भारतीय इतिहास में किस तरह याद किया जाता था यह एक अलग विषय है परन्तु देश की वर्तमान सत्ता सावरकर को ‘वीर सावरकर ‘ कहती है।और उन्हें महान स्वतंत्रता सेनानी का दर्जा देती है। जबकि सावरकर के आलोचक उन्हें अंग्रेज़ों से अनेक बार मुआफ़ी मांगने वाला और अंग्रेज़ों से पेंशन हासिल करने वाला तथा उनका मददगार होने का आरोप लगाते रहे हैं । हालांकि इसतरह के कई दस्तावेज़ आज भी उपलब्ध हैं। परन्तु आज सावरकर के महिमामंडन का वह दौर है जबकि कहीं गणेशोत्सव के पंडालों में सावरकर की तस्वीर लगाई जाती है तो जब कोई सावरकर विरोधी इसकी आलोचना करता है,गणेश जी के साथ सावरकर का चित्र लगाने को ग़लत बताता है तो सावरकर समर्थक व ज़िम्मेदार समझे जाने वाले नेता जवाब देते हैं कि यदि  ‘सावरकर के पोस्टर छुए तो हाथ काट देंगे’। देश में कई जगहों पर उनकी मूर्तियां स्थापित करने की  भी ख़बरें हैं। सावरकर को भारत रत्न दिये जाने की मांग उनके समर्थक लंबे समय से करते ही आ रहे हैं। और कोई आश्चर्य नहीं कि भारत सरकार कभी भी सावरकर को भारत रत्न देने की घोषणा कर भी दे। क्योंकि विगत महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के घोषणापत्र में भाजपा ने सावरकर को भारत रत्न सम्मान देने का वादा भी किया था।
सावरकर को भारत रत्न दिये जाने के सन्दर्भ में यहां पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपई को 2015 में भारत रत्न दिये जाने का ज़िक्र करना प्रासंगिक होगा। जिस तरह सावरकर को कथित तौर पर अंग्रेज़ों का मददगार  व स्वतंत्रता आंदोलन का विरोधी बताया जाता है लगभग वैसे ही आरोपों का सामना वाजपेई भी सारी उम्र करते रहे। उनपर आरोप था कि जब उनके अपने गांव बटेश्वर की बाज़ार में 27 अगस्त, 1942 को ब्रिटिश हुकूमत के ख़िलाफ़ लगभग 200 क्रांतिकारियों की भीड़ इकट्ठा हुई जिसने वहां के वन विभाग के भवन में तोड़फोड़ की व भारतीय झण्डा फहराया उस समय अटल बिहारी वाजपेयी अपने भाई प्रेम बिहारी वाजपेयी के साथ घटनास्थल के समीप ही  खड़े थे। घटना के अगले दिन पुलिस ने गांव में छापामारी की और कई लोगों को गिरफ़्तार कर आगरा जेल भेज दिया गया। गिरफ़्तार लोगों में अटल बिहारी वाजपेयी और उनके भाई प्रेम बिहारी वाजपेयी भी शामिल थे। बाद में वाजपेयी के पिता ने अंग्रेज़ अफ़सरों से सिफ़ारिश कर अपने दोनों बेटों को अंग्रेज़ों के चंगुल से आज़ाद करा लिया। इतना ही नहीं बल्कि इन दोनों वाजपेई बंधुओं ने बाद में गिरफ़्तार स्वतंत्रता सेनानियों के ख़िलाफ़ अदालत में गवाही भी दी थी। जिसके आधार पर स्वतंत्रता सेनानियों को सज़ा भी हुई। इतने संगीन आरोपों के बावजूद वाजपेई न केवल भाजपा की ओर से देश के प्रधानमंत्री चुने गये बल्कि सत्ता में आते ही मोदी सरकार ने उन्हें भारत रत्न जैसे देश के सर्वोच्च सम्मान से भी नवाज़ा। अतः सावरकर को भी चाहे कोई माफ़ी वीर कहे या अंग्रेज़ों का शुभचिंतक परन्तु उन्हें भी भारत रत्न दिये जाने में किसी को कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिये। 
  बहरहाल,जहाँ तक सावरकर का बुलबुल के पंख पर सवार होकर पोर्ट ब्लेयर की जेल से बाहर निकल कर मातृभूमि का भ्रमण करने जैसे प्रकरण  का प्रश्न है तो सावरकर भक्तों ने भले ही इस अफ़साने को हज़म क्यों न कर लिया हो परन्तु इस कथा के रचयिता लेखक की पत्नी इस प्रसंग को पचा नहीं पा रही हैं। इस विवादित प्रसंग के कथाकार के टी गट्टी की पत्नी यशोदा अम्मेमबाला ने बुलबुल पर सावरकर की सवारी की कल्पना को लेकर उठे विवाद को देखते हुए यह स्पष्टीकरण दिया है कि यह एक रूपक से अधिक और कुछ नहीं है। हो सकता है कि यह लेखक की ग़लती से हुआ हो अथवा यह संपादकीय त्रुटि भी हो सकती है। लेखक की पत्नी यशोदा अम्मेमबाला ने कहा कि ‘ हमें नहीं पता कि सावरकर का बुलबुल के पंख पर बैठने का रूपक लेखक ने ख़ुद लिखा है अथवा यह कोई कहानी है जो उन्होंने किसी किताब अथवा स्थानीय सूत्रों से ली है, लेकिन हम इतना तो विश्वास से कह सकते हैं कि यह लेखक की कल्पना नहीं है।’’ गोया लेखक की वयोवृद्ध पत्नी ने भी बुलबुल के पंख पर सावरकर के बैठने व मातृभूमि का भ्रमण करने जैसी अविश्वसनीय ‘कथा ‘ को लेखक की अथवा संपादकीय त्रुटि बताकर इस हास्यास्पद दावे से अपने लेखक पति को मुक्त कराने का प्रयास किया है। लेखक की पत्नी यशोदा अम्मेमबाला ने अपना स्पष्टीकरण देकर तो ‘बुलबुल’ के पंख से सावरकर को ज़रूर उतारने की पूरी कोशिश की है परन्तु आश्चर्य है उन अंधभक्तों की अंध भक्ति पर जो बुलबुल के पंख पर सवार होकर सावरकर के साथ साथ ख़ुद भी ‘मातृभूमि का भ्रमण ‘ करने निकल पड़े थे। 

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